बुंदेलखंड को लोग या तो उसकी वीर गाथाओं के लिए जानते हैं या फिर उसके सूखे के लिए. यहां के किसी न किसी क्षेत्र में पानी कि किल्लत वैसे तो पूरे बारह मास रहती है लेकिन गर्मी आते ही स्थितियां और भी भयावह हो जाती हैं. जहां लोगों को ये सोचना पड़ जाता हो कि पानी को पीने में इस्तेमाल करें या पाखाने में वहां के हालात क्या होंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. दशकों से चली आ रही पानी की इस कमी और लगातार सूखे ने यहां के लोगों को उनके पूर्वजों की जमीन से अलग होने पर मजबूर कर दिया.
बुंदेलखंड का आधार ग्रेनाइट है और मिट्टी भी मोटी है जिस वजह से यहां पानी ठहर नहीं पाता. वहीं दूसरी तरफ भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि इस इलाके में बारिश भी कम होती है. लेकिन इतनी कम भी नहीं कि यहां हालात इतने बदतर हो जाएं. वर्ष जल के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बुंदेलखंड में औसतन 300 से 400 मिलीमीटर बारिश होती है, जो राजस्थान के कई इलाकों से कई गुना ज्यादा है. बावजूद इसके यहां मराठवाड़ा और लातूर से कम गंभीर हालात नहीं हैं. दरअसल यहां ऐसी जल संग्रहण व्यवस्था करने की जरूरत है कि इस इलाके को पानी निरंतर रूप से मिलता रहे. इसके लिए पिछली तमाम सरकारों की ही तरह मौजूदा योगी सरकार इस इलाके को जल संकट से उबारने के लिए पांच हजार करोड़ का पैकेज घोषित कर चुकी है और तालाब विकास प्राधिकरण का भी गठन कर दिया लेकिन असल में जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं हुआ. कई जगह तालाबों का निर्माण हुआ तो ऐसी जगह जहां वर्षा जल का भंडारण संभव ही नहीं है तो कई तालाब सिर्फ फाइलों पर ही खुद गए. ऐसा बीते कुछ समय में आईं रिपोर्ट्स कहती हैं.
बुंदेलखंड में हर साल बढ़ती पानी की किल्लत और अकाल ने ये बार-बार साबित किया है कि इस इलाके में पानी के समुचित प्रबंधन की जरूरत है. लेकिन इस चीज को सिर्फ चंदेल शासकों ने ही समझा है. उन्होंने जल भंडारण के लिए यहां कई जगह तालाब बनवाए. ये तालाब ऊपर से नीचे की तरफ बने होते थे, जिससे एक तालाब का पानी दूसरे में पहुंचता रहे. या तो सतह से या फिर भूजल प्रवाह के माध्यम से. लेकिन इन तालाबों के पानी का इस्तेमाल कभी सिंचाई के लिए नहीं किया जाता था. इसके लिए कुओं का उपयोग होता था, जो तालाब के आस पास बनाए जाते था. इस तरह कुओं में जलस्तर बना रहता था और उनका पुनर्भरण होता रहता था.
9वीं से लेकर 16वीं शताब्दी तक यहां हज़ारों की संख्या में तालाब बने. महोबा को तालाबों की नगरी तक कहा जाता है, यहां कभी एक हज़ार से ज्यादा तालाब हुआ करते थे. इंडिया वाटर पोर्टल के मुताबिक बुंदेलखंड के 13 जिलों के 10 हजार गांवों में कभी 53,000 तालाब हुआ करते थे. यहां मुख्य रूप से तीन तरह के तालाब हैं। 400 से 1000 एकड़ में फैले बड़े तालाब (जलाशय) जो राजा-महाराजों द्वारा बनवाए गए थे. जैसे चंदेल राजाओं की राजधानी महोबा का विशाल कीरत सागर. दूसरे तालाब जो गांव के आसपास थे, जिनमें कुछ ग्राम समाज और कुछ धनी लोगों ने बनवाए थे. तीसरे निजी तालाब हैं जो अपेक्षाकृत छोटे हैं. झांसी और खजुराहों के इलाकों में आज भी ऐसे कई तालाब आपको देखने को मिल जाएंगे लेकिन उनमें से ज्यादातर पर या तो कब्जा हो गया है या वे कूड़ा घर में तब्दील हो चुके हैं. आजादी के बाद से ही इनके जीर्णोद्धार पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.
उस दौरान भंयकर सूखे की स्थिति में भी यहां के लोगों को पानी उपलब्ध होता रहता था, लेकिन अब हालात दिन-ब-दिन बद से बदतर होते जा रहे हैं. कारण है कि नई पीढ़ी और सरकार ने पारंपरिक जल ढांचे को दकियानूसी बताते हुए दरकिनार कर दिया. खेती का रकबा बढ़ाने और भवन निर्माण के चलते लोगों ने तालाबों को पाट दिया, बांधों को तोड़ दिया और इसके पत्थरों और मिट्टी का इस्तेमाल अपने हित में कर लिया.
वहीं राजनीतिक दलों को एक दूसरे को उखाड़ने-पछाड़ने के बीच न तो कभी यहां के किसानों की आत्महत्याएं दिखाई दीं और न ही बुंदेलखंडियों का सूखा कंठ. जाति-बिरादरी की घटिया राजनीति और अलग राज्य का स्वप्न दिखाकर हमेशा अपनी सियासी रोटियां सेंकी गईं हैं. अगर असल में बुंदेलखंड मराठवाड़ा या लातूर को जल संकट से उबरना है तो अतीत के जल नेटवर्क को अपनाना होगा. इसके लिए इन क्षेत्रों में योजनाबद्ध तरीके से बड़े- बड़े जलाशय बनाए जाएं ताकि भूगर्भ के जल स्तर को घटने से रोका जा सके और सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराया जा सके. इसके अलावा पुराने ताल तलैया और तालाबों को साफ और गहरा किए जाने की आवश्यकता है.