कोरोना संक्रमण के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है. एहतियातन स्कूल-कॉलेज फिलहाल बंद हैं. दूसरी ओर, पढ़ाई पर असर न हो, इसके लिए ‘भारत पढ़े ऑनलाइन’ मुहिम जोर-शोर से चलाई गई. इसके तहत बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा दी जा रही है. हालांकि इसका उल्टा ही असर हुआ. वर्चुअल पढ़ाई के कारण लड़कों और लड़कियों के बीच का फर्क और गहरा गया. इस फर्क को डिजिटल डिवाइड कहा जा रहा है.
सबसे पहले तो समझते हैं कि आखिर डिजिटल डिवाइड क्या है और क्यों ये जानना जरूरी है. डिजिटिल डिवाइड लोगों के बीच का वो फासला है जो इंटरनेट की उपलब्धता से जुड़ा है. नब्बे के दशक में ये टर्म पहले-पहल इस्तेमाल में आया. तब तय हुआ कि इंटरनेट न होने के कारण जानकारी की जो कमी पैदा हो रही है, उसे कम किया जाए. यानी इंटरनेट का हर जगह पहुंचाया जा सके. जब तक इंटरनेट के कारण पैदा हुए इस फर्क को मिटाने की कोशिश हो रही थी, एक और फासला पैदा हो गया, ये है जेंडर डिजिटल डिवाइड. ये फासला उतना ही खतरनाक है क्योंकि ये सीधे आधी आबादी के हक को कम करता है. इस फर्क के कारण लड़कियों के हाथ में इंटरनेट उतनी आसानी से नहीं आ पाता, जितनी आसानी से ये सुविधा लड़कों को मिल पाती है.
अब कोरोना-काल में ई-लर्निंग को ही लें तो ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान कई ऐसे मामले आए, जिसमें शिक्षा न मिल पाने के कारण लड़कियों में आत्महत्या की प्रवृति बढ़ी. जून की शुरुआत में दक्षिणी केरल में 14 साल की एक बच्ची ने खुदकुशी कर ली क्योंकि उसके पास पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन नहीं था. पश्चिम बंगाल में भी मिलती-जुलती घटना सामने आई, जब 16 साल की लड़की ने ऑनलाइन क्लास न ले पाने पर फेल हो जाने के डर से आत्महत्या कर ली.
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) की साल 2017-18 की रिपोर्ट पर हाउसहोल्ड सोशल कंजप्शन ऑन एजुकेशन इन इंडिया ने काम किया. इस दौरान देखा गया ग्रामीण इलाकों में केवल 15% आबादी के पास इंटरनेट है. वहीं महिलाओं के पास ये और कम हो जाता है और केवल 8.5% महिलाएं स्मार्ट फोन रखती हैं, या जरूरत पड़ने पर इंटरनेट का उपयोग कर पाती हैं.
आर्थिक तौर पर कमजोर घरों में ये भी देखा गया कि स्कूल बंद होने के कारण लड़कियों के पास पढ़ाई के लिए अलग से कोई समय नहीं बचा. वे ज्यादातर समय घरेलू कामों को देती हैं. इसके अलावा अगर इंटरनेट घर के एकाध ही सदस्य के पास है, और घर पर लड़के और लड़कियां दोनों ही हैं, तो लड़कों की पढ़ाई को प्राथमिकता दी जाती है.
यूनिसेफ के ताजा आंकड़े बताते हैं कि कोरोना से पहले स्कूल जा रही हर सात में से एक लड़की अब ई-लर्निंग में पीछे चल रही है. ये आंकड़ा पूरी दुनिया का है. एशियाई देशों और खासकर भारत में हालात और खराब हैं. इसके कई कारण हैं. मिसाल के तौर पर एक वजह तो संसाधनों की कमी है. साल 2017-18 में मिनिस्ट्री ऑफ रुरल डेवलपमेंट ने पाया कि केवल 47% घर ऐसे हैं, जहां 12 घंटे या उससे ज्यादा बिजली रहती है. साथ ही 36% स्कूल बिना बिजली के ही चल रहे हैं. इससे जाहिर तौर पर क्लासरूम सेंटिंग से अलग जाकर ई-लर्निंग में सबको मुश्किल हो रही है लेकिन लड़कियों के लिए ये मुश्किल ज्यादा बड़ी हो जाती है.
इसके कारण पर बात करते हुए राइट टू एजुकेशन फोरम (RTE Forum) के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीश राय कहते हैं कि डिजिटल लर्निंग असल में डिजिटल डिवाइड यानी फर्क बढ़ा रही है. जो बच्चे गांवों में हैं, पहाड़ों पर हैं या किसी भी दूरदराज के ऐसे इलाके में हैं, जहां बिजली, इंटरनेट नहीं होता, वहां पढ़ाई नहीं हो सकेगी. ग्रामीण और आर्थिक तौर पर कमजोर तबके में अगर घर पर एक ही स्मार्टफोन हो तो लड़कियों की उस तक पहुंच न के बराबर होती है. कुछ हाथ इसमें सोशल नॉर्म्स का भी है, जिसके चलते लोगों को लगता है कि लड़कियों के हाथ में मोबाइल आ जाए तो वे उसका गलत इस्तेमाल ही करेंगी.
लड़कियों के साथ ही साथ डिटिजल लर्निंग कई तबकों में फासला बढ़ा रही है. ऑनलाइन शिक्षा केवल अमीर-गरीब में अंतर नहीं ला रही, बल्कि इससे शहरी-ग्रामीण और पुरुष-महिला में भी भेद बढ़ा है. ऐसे में कमजोर तबका और पीछे चला जाएगा. और होगा ये कि सालों से विकास की जो कोशिश हो रही थी, वो कई कदम पीछे हो जाएगी. यानी देखा जाए तो कोरोना संक्रमण के बचाव के दौरान ई-लर्निंग का ये तरीका सीधे-सीधे राइट टू एजुकेशन पर प्रहार है.